सुरगजा से सरगुजा

प्रस्तुतकर्ता Unknown मंगलवार, 29 जनवरी 2013



रगुजा छत्तीसगढ का एक जिला और सम्भाग है। सरगुजा जिला राजनैतिक सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों का आदिकाल से ही प्रमुख केन्द्र रहा है।  भारतीय कला के इतिहास में सरगुजा का विशेष महत्व है। सरगुजा के अंतर्गत रामगढ, लक्ष्मणगढ, महेशपुर, सतमहला, बेलसर, कोटगढ, डीपाडीह आदि में पुरातात्विक संपदा बिखरी पड़ी है। यहाँ शिल्पियों ने शिल्पकला का उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हुए अद्वितीय शिल्प का निर्माण किया। कलचुरी कालीन शासकों ने शिल्पकला का अनुपम पक्ष प्रस्तुत किया। पुरासम्पदा एवं प्राकृतिक सौंदर्य, खनिज एवं वन सम्पदा की दृष्टि से धनी और सम्पन्न है। सरगुजा जिले का मुख्यालय अम्बिकापुर है। सरगुजा क्षेत्र के अंतर्गत रामगढ़, लक्ष्मणगढ़, महेशपुर, बेलसर, सतमहला, कोटगढ़, डीपाडीह आदि प्रमुख स्थान आते हैं। जहाँ की पुरासम्पदा एवं प्राचीन कलाकृतियां अद्वितीय हैं। नामारुप सरगुजा (सुरगजा) जंगली हाथियों के लिए भी प्रसिद्ध है। अम्बिकापुर में स्थित महामाया मन्दिर है। महामाया कलचुरियों की इष्टदेवी मानी गयी है। जहाँ-जहाँ कलचुरियों का शासन रहा, वहाँ-वहाँ उनके द्वारा महामाया मन्दिर का निर्माण कराया गया तथा मन्दिर के पार्श्व में किला बनवाया गया। सरगुजा का महामाया मन्दिर कलचुरिकालीन कला परम्परा का श्रेष्ठ नमूना है। सरगुजा के रामगढ में प्रतिवर्ष आषाढ मास के प्रथम दिन "आषाढस्य प्रथमदिवसे" नामक आयोजन छत्तीसगढ के पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग द्वारा किया जाता है। इस आयोजन में राष्ट्रीय स्तर पर शोध संगोष्ठी एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। महाकवि कालीदास का नाम भी सरगुजा के साथ जुड़ा हुआ है। यहाँ भगवान राम भी आए थे। धार्मिक दृष्टि से भी सरगुजा  महत्वपूर्ण है।

सरगुजा का राजसिंहासन
वैसे सरगुजा मेरा पूर्व में भी आना हुआ है। परन्तु इस बार की यात्रा का प्रयोजन विशेष था। आयोजन समिति के निमंत्रण मुझे अपना हसदा (हसदपुर) पर शोध-पत्र प्रस्तुत करना था। 4-5 जून को दो दिवसीय कार्यक्रम में जाने मन आमंत्रण मिलते ही बना लिया था। सरगुजा के प्राकृतिक सौदर्य के साथ कुछ पुरातात्विक महत्व के स्थलों का भ्रमण करना था और जब पुराविद साथ हों तो आनंद चौगुना हो जाता है। जो एक साधारण मनुष्य नहीं देख समझ पाता वह हम उनके द्वारा समझ लेते हैं।  संज्ञा टंडन भी बिलासपुर से रायपुर आई हुई थी। कार्यवश उनसे भी मिलना था। इसलिए 3 जून को घर से पूरी तैयारी के साथ ही रायपुर के लिए प्रस्थान किया। अगर रात को जाना हो तो भी जाया जा सके। दादा जी कहते थे - अगर चूहे का शिकार करना हो तो भी शेर के शिकार का समान साथ होना चाहिए अर्थात पूरी तैयारी के साथ चलना चाहिए। महंत घासीदास संग्रहालय के मुक्ताकाशी मंच पर "यादें हबीब" कार्यक्रम के अंतर्गत नाचा एवं नाटक का भी मंचन था। अब एक पंथ और कई काज साधने के इरादे से रायपुर पहुंच गए।

हेमंत वैष्णव (राजा फ़ोकलवा)
संज्ञा जी को फ़ोन लगाया तो वे पहुंची और हम भी हेमंत वैष्णव के साथ पहुंच गए। वार्ता होने के पश्चात मुक्ताकाशी मंच पर आ गए। वहां तैयारी हो रही थी लोक नाट्य (नाचा गम्मत) की। हमने वहां बैठकर पूरा गम्मत देखा। रात्रि के 9 बज चुके थे। तय हुआ कि सुबह की साऊथ बिहार एक्सप्रेस से चांपा तक जाएं फ़िर साथियों के आने बाद आगे का सफ़र किया जाए। हेमंत के आग्रह पर मैने उसके घर में रात रुकने का कार्यक्रम बना लिया। अनुज का फ़ोन आने पर उसे बता दिया कि आज हेमंत वैष्णव के घर का दाना पानी लिखा है। हेमंत के घर पहुंच कर भोजन किया और कुछ समय नेट पर गुजारने के बाद निद्रा देवी की आराधना में लग गए और हेमंत लाफ़्टर ऑडिशन के लिए स्क्रीप्ट लिखते रहा। सुबह होने पर जल्दी ही तैयार हो गए। साढे सात बजे स्टेशन पहुंच कर टिकिट ली। साउथ बिहार का समय रायपुर पहुचने का 7.55 है। गाड़ी निर्धारित समय पर पहुंच गयी। बिहार और बंगाल जाने वाली गाड़ियों में लोकल यात्रियों के लिए सीट मिलना बहुत कठिन हो जाता है। हमेशा ही इधर की सवारियाँ टंगे मिल जाती है। थोड़ी मसक्कत के बाद बैठने के लिए सीट मिल गयी और हमने अपना पाठ-पीढा जमा लिया। गर्दी के मारे फ़र्श पर भी पैर रखने की जगह नहीं थी। सवारियाँ खड़े-खड़े सफ़र का मजा ले रही थी। पर मुझे तो बैठने का स्थान मिल चुका था।

कथेसर
समय बिताने के लिए सत्यनारायण सोनी हनुमानगढ द्वारा भेजी गयी राजस्थानी की त्रैमासिक पत्रिका कथेसर पढने लगा। राजस्थानी भाषा की कोई पत्रिका पढना मेरे लिए पहला मौका था। भाषा पर क्षेत्र विशेष का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। राजस्थान बड़ा राज्य है और यहाँ क्षेत्र के हिसाब से लगभग 76 बोलियां बोली जाती हैं। सीमा क्षेत्र पर समीप के राज्यों का प्रभाव भी बोली पर रहता है। भरतपुर या झुंझनु का व्यक्ति जोधपुर बाड़मेर, नागौर, हनुमानगढ तरफ़ की बोली आसानी से नहीं समझ सकता। यह पत्रिका ठेढ मारवाड़ी में भी नहीं है, पर मिली जुली बोली का भी अपना ही आनंद है। कुछ कहानियाँ बड़ी मजेदार और ज्ञानवर्धक हैं। जिसमें नवनीत पाण्डे की "घुसपैठ", पेंटर भोजराज सोलंकी की "डर", श्रीभगवान सैनी की मार्मिक कहानी "तीर", विजयदान देथा की "माँ" सामाजिक सरोकार से जुड़ी अच्छी कहानियाँ है। साथ ही मोहन आलोक का लेख "अभनै रा किस्सा" मुल्ला नसीरुद्दीन एवं अकबर बीरबल के किस्सों से इक्कीस ही है। धड़धड़ाती रेल में इन कहानियों को पढने का मजा आ गया। गरमी बढने से लू के थपेड़े लगने लगे। 10 बजे ही शोले बरसने लगे थे, आज नौतपा का अंतिम दिन था। सूर्य देवता पुर्ण प्रखरता पर थे। गाड़ी ने 1045 के सही समय पर चांपा पहुंचा दिया। साथियों ने 1 बजे चांपा पहुचने की कही थी। अब मुझे तीन घंटे यहीं काटने थे।

चांपा स्टेशन
स्टेशन के बाहर जाने से लू लग रही थी। इसलिए स्टेशन पर रहकर ही सवारियों के लटके झटके देखते हुए समय बिताने का निश्चय किया। क्योंकि समय बिताने के लिए स्टेशन से अच्छी जगह और दूसरी नहीं होती। स्टेशन पर सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल, खाने के लिए भोजन, एवं विपत्ति के समय भागने के लिए ट्रेन तैयार मिलती है। भूख लगने पर चांपा के प्रसिद्ध बड़े लिए। चांपा से गुजरने वाली सवारियां यहां के बड़े जरुर खाती हैं। मैने टेस्ट करके देखे तो लगा कि बड़े चावल के थे। दाल का तो नामोनिशान ही नहीं था। बड़ी मुश्किल से खाए गए। चांपा के बड़ों में वो स्वाद नहीं रहा। मिलावटी होने के कारण  सिर्फ़ नाम ही रह गया। बड़ा खा ही रहा था इतने में कोरबा पुश पुल ट्रेन आ गयी। सवारियाँ चढने लगी। ट्रेन के जाते ही एक डोकरी चिल्लाते हुए आई कि- गाड़ी छुटगे गाड़ी छुटगे। अपने आप ही बोलने लगी कि - तीन पोतियों को गाड़ी में बैठाकर आम लेने गयी थी और गाड़ी चली गयी। अब लड़कियों को यह नहीं पता कि कौन से टेसन में उतरना है। पहली बार आई है उसके साथ, अब क्या होगा? अगली गाड़ी शाम 4 बजे थी। लोग अपनी तरफ़ से उसे सलाह देने लगे। मैने पैर फ़ैलाए और झपकी आ गयी लू के थपेड़ों में ही।

ढोकरा कला सिखाते हुए
फ़ोन बजने पर जागा,अपन भी हाथ मुंह धोकर नींद की खुमारी उतारने में लग गए। अब हमें कोरबा होते हुए अम्बिकापुर पहुंचना था। बाबू साहब से कोरबा में मिलना तय हुआ था। सही समय पर साथी पहुंच गए। जब हम कोरबा पहुचे तब भोजन का समय निकल रहा था। यहाँ के सुरुचि मारवाड़ी भोजनालय में पहुंचे और बाबु साहब का लोकेशन लेकर उन्हे सुरुचि में ही बुला लिया। बाबु साहब भी आ गए, अब आगे का सफ़र आनंददायी होने वाला था। बाबु साहब साथ रहें और बोरियत हो जाए यह हो ही नहीं सकता। आकार का कार्यक्रम देखने के बाद हमने ने नया पुरातत्व संग्रहालय देखने की इच्छा जाहिर की। बाबु साहब पुराने संग्रहालय में ले गए। जब उन्हे कहा गया कि नए संग्रहालय में जाना था तो उन्होने दिमाग पर जोर डाल कर कहा कि मेरी किडनी काम नहीं कर रही है, फ़ेल हो गयी। यहां से सीधे ही हम कटघोरा होते हुए अम्बिकापुर की ओर चल पड़े। रास्ते में शास्त्र चर्चा होते रही। घरेलु मुद्दों से लेकर राष्ट्रीय विषयों पर चर्चा करते हुए हम रात को 9 बजकर 9 मिनट पर अम्बिकापुर के महामाया चौक के आगे स्थित अम्बर होटल तक पहुंच गए। यहां हमारे खाने की व्यवस्था थी। स्नान करके भोजनोपरांत हम होटल आर्यन में सोने के लिए आ गए।

रजवार पेंटिंग
बाबु साहब की कविताएं कठिन होती हैं, आम पाठक की समझ से बाहर होकर उपर से ही उड़ जाती हैं, कभी-कभी मेरे भी।:) एक दिन उनकी कविता आँच पर चढी हुई देखी। समीक्षक द्वारा उसमें मात्राओं की कमी बताई गयी थी लेकिन बाबु साहब ने गाकर सुनाया तो सारी मात्राएं फ़िट हो गयी। बात गाने के अंदाज की है। गाने के आरोह-अवरोह में मात्रा दोष दिखाई नहीं देता। बाबु साहब की इस काबिलियत के हम कायल हैं। बाबू साहब की डुएट गजल की एक बानगी देखिए - मेरा अंदाज जुदा प्यार जतलाने का, पा न पाया तुझे तो हस्ती मिटा जाने का। कैसा अंदाज तेरा प्यार जतलाने का, प्यार तू कर न सका, प्यार में मिट जाने का। यह गज़ल सुनकर हम तो घायल होकर कटे पंछी की तरह बिस्तर पर पड़ गए। रात सुखद स्वपनों से भरी रही। अम्बपाली थिरकते रही और हम सोते रहे। अम्बपाली को कैसे भुला सकते हैं। जो हमारा हमेशा प्रिय चाहती रही आर्यबलाधिकृत से। जारी है सरगुजा कथा………आगे पढें…  

1 Responses to सुरगजा से सरगुजा

  1. ianthyahfago Says:
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