दंतेवाड़ा से कुटुमसर

प्रस्तुतकर्ता Unknown गुरुवार, 23 अगस्त 2012 0 टिप्पणियाँ

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दंतेवाड़ा की ओर
सुबह आँख खुली तो घड़ी 6 बजा रही थी और हम भी बजे हुए थे, कुछ थकान सी थी। सुबह की चाय मंगाई, चाय पीते वक्त टीवी गा रहा था "सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार।" स्नान करने लिए गरम पानी का इंतजार करना पड़ा, जब से सोलर उर्जा से गरम पानी का यंत्र लगा है होटलों में, तब से सूर्य किरणों का इंतजार करना पड़ता है। खिड़की से देखने पर पता चला कि थोड़ी सी धूप खिली है। पानी हल्का कुनकुना ही हुआ था, उसी से स्नान कर लिया। 9 बजे तक सब तैयार हो चुके थे, अब हम दंतेवाड़ा की तरफ़ चल पड़े। नए ड्रायवर के हवाले गाड़ी थी। शारीरिक थकान को उसके ड्राईव करने की लालसा ने दबा रखा था। अगर वह कह दे कि थका हुआ है तो ड्राईव करने का मजा नहीं ले सकता था। मैं सामने सीट पर नेवीगेटर का कार्य कर रहा था और वह पायलेटिंग। तभी फ़ोन पर देवी दर्शन हुए, चलो यात्रा का शुभारंभ हुआ।  मुझे भूख लगने लगी , सुबह नाश्ता नहीं किया , मित्र परिवार ने दर्शन करके ही कुछ ग्रहण करने का मन बना चुके थे। मैने दो पीस केक से काम चलाया।

क्षतिग्रस्त थाना भवन
बास्तानार और गीदम के बीच में बास्तानार घाट पड़ता है, मुख्य मार्ग पर, घाट अच्छा है हरियाली से आच्छादित। कुछ दिनों पूर्व इसी घाट में नक्सलियों ने पुलिस पार्टी की गाड़ी को एम्बुश लगा कर उड़ाया था। उसी रास्ते से हम भी गुजरे। वहाँ पर एक मंदिर भी है। स्थानीय लोगों से चर्चा होने पर उन्होने बताया कि दादा लोगों की लड़ाई आम जन से नहीं है वे सरकारी लोगों को ही नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए आम आदमी कभी भी आ जा सकता है। लेकिन तब भी लोग डरे रहते हैं। डरना ही पड़ेगा भाई, जब दोनो हाथों में बंदुक हो तो मरना निहत्थे को पड़ता है। कब कौन चपेट में आ जाए क्या पता। पहले जब आया था तब इस रास्ते पर तीन जगहों पर पुलिस के बैरियर थे, चेकिंग के बाद ही जाने देते थे। अब कहीं पर कोई बैरियर नजर नहीं आया। गीदम पहुंचे तो वह नवनिर्मित थाना दिखाई दिया जिसे सिर्फ़ एक हफ़्ते पहले ही नक्सलियों ने उड़ाया था। यह थाना गीदम शहर की आबादी से लगा हुआ है। अब इनका प्रभाव जंगल से बाहर मुख्य मार्ग तक दिखाई देने लगा है।

स्वागत द्वार
गीदम पहुंचने लोकनिर्माण विभाग का बड़ा गेट दिखाई दिया। उस पर बताए गए मार्ग अनुसार गाडी सीधे ही बढा दी। दो चार किलो मीटर चलने पर वह रास्ता मुझे दंतेवाड़ा मार्ग जैसा नहीं लगा। एक माईल स्टोन बोंडापाल बता रहा था। अब समझ आया कि हमें गीदम से बाएं मुड़ना था और हम सीधे चले आए। वापस आकर सही रास्ता पकड़ा। 12 बजे दंतेवाड़ा पहुंचे। यहाँ की आबादी अधिक नहीं है लगभग 10,000 होगी, जिला होने के कारण सरकारी कर्मचारियों का डेरा है। पहले जब आया था तो यहां के सर्किट हाउस में ठहरा था। सरकार ने यहाँ काफ़ी निर्माण कार्य किए हैं। रहवासियों के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। दंतेश्वरी माता मंदिर मार्ग का भी चौड़ी करण हो रहा है। अब सामने मुख्यद्वार दिखाई दिया। सलामत पहुंचने की खुशी थी। प्रसाद लिया और माई के दर्शन करने पहुंचे। बस्तर राज परिवार की कुल देवी दंतेश्वरी माता हैं। 

भैरव बाबा
मंदिर में प्रवेश करने पर सबसे पहले प्रस्तर स्तम्भ निर्मित भैरव बाबा का मंदिर है। मित्र ने कहा कि पहले देवी के दर्शन फ़िर भैरव दर्शन करना चाहिए। दंतेश्वरी मंदिर में फ़ूल पैंट और पैजामा पहनने की मनाही है। वहाँ धोतियों का इंतजाम है आप वहीं पैंट रख कर धोती पहन कर दर्शन कर सकते हैं। हमने भी धोती पहनी, तभी ख्याल आया कि राहुल भाई ने फ़ोन पर किन्ही शिला लेख का जिक्र किया था और उनकी फ़ोटो लाने कहा था। देवी दर्शनोपरांत मैने शिलालेख ढूंढे और उनकी फ़ोटो लेने का प्रयत्न किया। शिलालेख के पीछे से रोशनी आने के कारण चित्र सही नही आ रहे थे। उसकी लिखावट पढने में नहीं आ रही थी। फ़िर भी हमने प्रयास करके चित्र लिए और एक वीडियो भी बनाया। अंधेरे एवं प्रकाश के विपरीत संयोजन के कारण चित्र प्रभावकारी नहीं थे। मंदिर के दुसरे प्रवेश द्वार पर गणेश जी, काली माई, इत्यादि अन्य देवताओं की प्रस्तर मुर्तियाँ स्थापित हैं। तीसरे द्वार पर दो व्याघ्र व्याल बैठे हैं। वही पर गर्भ गृह में दंतेश्वरी देवी विराजित हैं। 

शिलालेख - दंतेश्वरी मंदिर
पौराणिक मान्यतानुसार जहाँ जहाँ सती के अंग गिरे थे वहां वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई है। शंखिनी एवं डंकनी नदी के किनारे सती के दांत गिरे, इसलिए यहां दंतेश्वरी पीठ की स्थापना हुई और माता के नाम पर गाँव का नाम दंतेवाड़ा पड़ा। आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम सेविख्यात है। एक दंतकथा के मुताबिक वारंगल के राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा के मौके पर वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी, लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने यात्रा प्रारंभ की और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा और कुल देवी यहीं प्रस्थापित हो गई।

माँ दंतेश्वरी
माँ दंतेश्वरी की षट्भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है, जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने परवर्ती काल का गरुड़ स्तम्भ । 

गरुड़ स्तंभ
बत्तीस काष्ठ स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है।  माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। दंतेश्वरी माई में मनौती वाली पशु बलि भी दी जाती है। बकरे को पहले चांवल(अक्षत) चबवाया जाता है। अगर बकरे ने चांवल चबा लिए तो माना जाता है कि देवी या देवता ने बलि स्वीकार कर ली। हमारे सामने ही एक व्यक्ति दो बकरे लेकर मंदिर के भीतर आया और उसके नौकर ने बकरे पकड़ रखे थे।

बलि के बकरे
बकरे देख कर बलि देने के अवसर का हिसाब लगाने लगा। लेकिन ऐसा कोई समय या पर्व नहीं दिखा जिस दिन बलि दी जाए। दुर्गा नवमी या जवांरा पर्व में बलि देनी की प्रथा है।तब समझ आया कि आज 31 दिसम्बर है। देवी-देवताओं के नाम बकरे की बलि भी दी जाए और मौज मस्ती भी ली जाए। दोनो काम एक साथ, खुद भी खुश और भगवान भी खुश। बकरे वाले के पास ही बैठ कर एक वृद्ध प्राचीन वाद्य पूंगी बजा रहा था। उसकी ध्वनि मुझे शंख ध्वनि जैसी लग रही थी। मैने उसे और बजाने के लिए कहा। उसने कई बार बजाया। गर्भ गृह के पास ही एक युवा दुर्गा सप्तसति का पाठ कर रहा था। और रक्षा सूत्र का भंडार रखा था। मतलब रक्षा सूत्र बांधने का ठेका इसके पास है। सभी ने रक्षा सूत्र बंधवाए, रक्षासूत्रों ने औरंगजेब की सेना को नारनौल के हारे हुए युद्ध में विजय दिलाई थी। अब हमें चलना चाहिए था क्योंकि बादल दिख रहे थे और बरसात होने की संभावना थी। 

पद्म चिन्ह
मंदिर के गर्भ गृह के सामने पद्म बना हुआ दिखाई दिया। इस पद्मचिन्ह का उपयोग तंत्र में किया जाता है। यहाँ तंत्र सिद्धी के लिए भी उपासना होती थी। यह जानकारी पिछली यात्रा में बाबा सतबीर नाथ पटौदी वाले ने मुझे दी थी। अब दर्शनार्थी इस चिन्ह पर नारियल, अक्षत और जल चढाते हैं। मंदिर के समीप ही माई जी कि बगिया है। सुंदर बगीचा बना  हुआ है, लेकिन समयाभाव के कारण वहाँ गए नहीं। मंदिर में जल की व्यवस्था है, यहीं से हाथ पैर धोकर मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। 2011 का अंतिम दिन होने के कारण दर्शनार्थियों की खासी संख्या थी। कुछ गुजरात एवं बंगाल के भी दर्शनार्थी मिले। दंतेश्वरी माता के दर्शन करने लिए सारे भारत से लोग आते हैं।

मुख्य द्वार
दर्शनोपरांत हमने काऊंटर पर मिल रहा प्रसाद लिया। जहाँ एक चलभाषधारी युवक बैठ कर पर्ची काट रहा था और आटे के 5 छोटे-छोटे लड्डू 25 रुपए में दे रहा था। आस्था, चिकित्सा के नाम पर सब मान्य है। हमने पचास रुपए देकर दो पैकेट लिए। पचास रुपए देने का एक मात्र कारण था कि लोग क्या कहगें प्रसाद भी नहीं लाए? ट्रस्ट द्वारा प्रसाद की व्यवस्था तो मुफ़्त में करानी चाहिए। पूर्व योजनानुसार कुटुमसर एवं तीरथगढ जल प्रपात देखने के लिए चल पडे। गीदम में भोजन करने की सोच कर आगे बढ गए। पूरा गीदम शहर निकल गया लेकिन कोई भी होटल दिखाई नहीं दिया। आगे तो कहीं खाना मिलेगा सोच कर आगे बढते गए।

विशाल बरगद किलेपाल में
किलेपाल पहुंचने पर सड़क के किनारे एक विशाल बरगद का पेड़ दिखाई दिया। जब हम मध्यप्रदेश में थे तब बरगद हमारा राज्य चिन्ह होता था। फ़ोटो लेने के लिए रुक गया। वहीं पर चाट का ठेला भी था। भूख लग रही थी, सोचा कि दो-चार गोलगप्पों पर ही हाथ साफ़ किया जाए। चाट वाले से महुआ के विषय में पूछा तो उसने कहा कि मिल सकता है। वह जब तक महुआ लाने गया तब तक हमने उसकी दुकान संभाली। थोड़ी देर बाद वह खाली हाथ आता नजर आया। उसने बताया कि आज 31 दिसम्बर होने के कारण स्टाक खत्म हो गया। जितना बनाया था सब बिक गया। दो घंटे बाद मिल जाएगा। इतना इंतजार कौन करे? हम चाट और गोलगप्पे उदरस्थ करने का मन बना चुके थे। वैसे चाट और गोलगप्पे का पानी मजेदार चटखारेदार था। 

अपनी चाट की दुकान
कई जगह गोल गप्पे वाले पानी अच्छा नहीं बनाते। गाँव में जब भी चाट खाई उसका आनंद ही लिया। हमने अपने लिए चाट स्वादानुसार स्वयं ही बनाई। अपना हाथ जगन्नाथ। अब इससे अधिक हाईजेनिक फ़ुड कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब जगदलपुर के समीप केशलूर पहुंचे तो वहां अच्छी बारिश हो रही थी। मुझे याद था कि यहाँ पर एक ढाबा है जहां मैने 7 साल पहले खाना खाया था। केशलुर ढाबे से ही कांगेर वैली, कुटुमसर एवं तीरथगढ के लिए रास्ता जाता है। ढाबे समीप ही गाड़ी रोकी। भीतर खाने वालों की बहुत भीड़ थी। बंगालियों ने हाय तौबा मचा रखी थी। नव वर्ष के अवसर काफ़ी बंगाली टूरिस्ट आए हुए थे। गरम गरम भाप उठता हुए चावल देख कर मन मचल गया। मैने चावल, दाल और सब्जी का आर्डर दे दिया। साथियों ने चाय पी और मैने भरपेट चावल खाया, छत्तीसगढिया जो ठहरा........................आगे पढें

बस्तर: पहला पड़ाव जगतुगुड़ा

प्रस्तुतकर्ता Unknown मंगलवार, 21 अगस्त 2012 4 टिप्पणियाँ

स्तर की धरा किसी स्वर्ग से कम नहीं। हरी-भरी वादियाँ, उन्मुक्त कल-कल करती नदियाँ, झरने, वन पशु-पक्षी, खनिज एवं वहां के भोले-भाले आदिवासियों का अतिथि सत्कार बरबस बस्तर की ओर खींच ले जाता है। बस्तर के वनों में विभिन्न प्रजाति की इमारती लकड़ियाँ मिलती हैं। यहाँ के परम्परागत शिल्पकार सारे विश्व में अपनी शिल्पकला के नाम से पहचाने जाते हैं। अगर कोई एक बार बस्तर आता है तो यहीं का होकर रह जाता है। आदिवासी हाट-बाजार, त्यौहार, वाद्ययंत्र, नाच-गाना एवं पारम्परिक उत्सव, खान-पान के साथ महुआ का मंद बस्तर भ्रमण के आनंद को कई गुना बढा देता है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने के कारण अब पर्यटकों की आवा-जाही कम हो गयी, लेकिन घुम्मकड़ों के लिए कहीं रोक टोक नहीं है। वे बेखौफ़ भ्रमण कर सकते हैं। बस्तर में ही आकर आदिवासी संस्कृति के विषय में विज्ञ हो सकते हैं। बचपन से अभी तक कई बार बस्तर जा चुका हूँ और जो भी बदलाव हुए हैं उसे मैने भी देखा है। बस्तर के निमंत्रण हमेशा तैयार रहता हूँ एक पैर पर।

नया ड्राईवर कर्ण
एक सप्ताह पहले ही गुजरात भ्रमण कर घर लौटा था। सोचा कि नव वर्ष घर पर ही मनाया जाएगा। बच्चे भी तैयारी में लगे थे। बरसों पुराने पारिवारिक मित्र का फ़ोन आया कि दंतेवाड़ा देवी दर्शन को चलते हैं। अगर छुट्टी मिल जाती है तो साथ चलेगें। मैने उन्हे अनमने मन से हाँ कह दी। बरसों के बाद मिल रहे थे। श्रीमती जी से जाने के विषय में पूछा तो उन्होने मना कर दिया और मैं अपने काम में लग गया। दुबारा उनका फ़ोन आया कि छुट्टी मिल गयी और वे शुक्रवार 30 तारीख को 12 बजे तक पहुंच रहे हैं। मैने अली सा को जगदलपुर पहुंचने की सूचना दे दी। दोपहर घर से खाना खाकर हम 5 प्राणी चल पड़े बस्तर जिले के मुख्यालय जगदलपुर की ओर। जगदलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर है। धमतरी होते हुए चारामा के बाद माकड़ी ढाबे में हम रुके, चाय पीने का मन था। माकड़ी ढाबा भी इस वर्ष अपनी 50 वीं वर्षगांठ मना रहा है। रायपुर से जगदलपुर जाने वाली हर यात्री गाड़ी यहीं रुकती है। इस ढाबे की खीर बड़ी प्रसिद्ध है। हमने चाय से पहले खीर का आनंद लिया। यहाँ की खीर में पतले चावल और औंटाया हुआ दूध रहता है साथ ही शक्कर की मात्रा कुछ सामान्य से अधिक। माकड़ी से विश्राम करके हम कांकेर की ओर चल पड़े। कांकेर में गाड़ी शहर के बीच से जाती है इसलिए वहां ट्रैफ़िक जाम की स्थिति बन जाती थी। अब यहाँ तालाब के पास से बायपास बना दिया है जो पप्पु ढाबा के पास जाकर मुख्य मार्ग में मिलता है।

हम बायपास से होकर केसकाल घाट की ओर बढते हैं। साथ ही घाट का जंगल भी बढता है। रास्ते के साथ के जंगल अब खत्म हो गए हैं। केसकाल घाट के पास ही कुछ जंगल बचे हैं। पहले यह घाट बहुत ही सकरा था। यह घाट आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और बस्तर का प्रवेश द्वार है। पहले जब रास्ता सकरा था तो जब कभी भी इधर से गुजरते थे तो एक-दो गाड़ियां खाई में पड़ी जरुर मिलती थी। रास्ता चौड़ा होने के बाद दुर्घटना की आशंका कम हो गयी है। लेकिन वाहन सावधानी से ही चलाने पड़ते हैं। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। घाट के उपर तेलीन माता का मंदिर है। गाड़ियाँ यहाँ एक बार रुक कर ही जाती हैं। मंदिर में चढाने के लिए नारियल प्रसाद पास की दुकान में मिलता है। इस घाटी के अन्त में लोक निर्माण विभाग का विश्राम गृह भी है। वहाँ से घाटी का नजारा बड़ा खूबसूरत नजर आता है। जगदलपुर के सर्किट हाऊस इंचार्ज को फ़ोन लगाने से उनका नम्बर नहीं मिला। इसलिए हमने ब्लॉगरिय धर्म निभाया और अली सा को होटल बुक करने के लिए कहा। उन्होने थोड़ी देर बाद फ़ोन करके बताया कि 31 दिसम्बर मनाने वालों के कारण किसी भी होटल में जगह नहीं है। बड़ी मुस्किल से रेनबो होटल में एक कमरा मिला है और उसे आपके नाम से बुक कर दिया है। चलिए तसल्ली हुई, हमने कहा कि ये चारों एक कमरे में टिक जाएगें और हम अली सा के घर। मामला फ़िट हो जाएगा।

कोन्डागांव से बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। मौसम खुशगवार हो गया था। नीरज को फ़ोन लगाया तो वह एक जन्मदिन पार्टी में था। वैसे भी उसकी जन्मदिन या शादी पार्टी रोज ही रहती है। हम लगभग 9 बजे रेनबो होटल ढूंढते हुए जगदलपुर शहर में पहुंचे। वहाँ काऊंटर पर पूछने पर बताया कि हमारे लिए एक कमरा बुक है, फ़िर उन्होने दूसरा कमरा भी दे दिया 3 माले पर। होटल में रेस्टोरेंट के साथ बार भी है। नीचे साफ़ सफ़ाई ठीक थी पर उपर जब अपने रुम में पहुंचे तो उसका बुरा हाल था। मेरे रुम में तो हनीमून के फ़ूल बिखरे हुए थे। बैरा ने हमारे कहने पर चादर तकिए बदले। लेकिन रुम में झाड़ू लगाने वाले गायब थे। मित्र अड़े रहे कि रुम साफ़ करवाया जाए, ये रुम ठीक नहीं है। उनको रुम बदल कर दे दिया गया। फ़्रेश होकर भोजन के लिए रेस्टोरेंट में पहुंचे वहाँ काफ़ी गहमा-गहमी थी। बाहर से पर्यटक आए हुए थे नव वर्ष मनाने के लिए। मेरा मुड उपर के रेस्टोरेंट में खाने का था। लेकिन ये सब नीचे के रेस्टोरेंट में पहुंच गए। अभी खाने का मुड बना था बच्चे सिर्फ़ सूप पीना चाहते थे। जब सूप आया तो उसमें डबल नमक निकला। जब उसे वापस किया गया तो उसने सूप के एक बाऊल को दो बना दिए और बिल देखा तो उसमें सभी का चार्ज जोड़ दिया।

चचा गालिब याद आ रहे थे, हमने जैसे तैसे खाना खाया, अन्य साथियों को यह रेस्टोरेंट पसंद नहीं आया। वे सूप के डबल बिल के नाम से काउंटर भिड़ गए। मुझे भी मैनेजर पर गरम होना पड़ा। काउंटर का लड़का मुझे जाना पहचाना लग रहा था। लेकिन मैने ध्यान नहीं दिया। जब उसने तुम कहकर बात कि मैने उसे कस के डांट दिया और अपने रुम में चला आया। अली सा ने फ़ोन पर बताया कि दंतेवाड़ा जाने के लिए सुबह जल्दी 6 बजे निकल जाएं तो कुटुमसर और तीरथ गढ के साथ चित्रकूट भी देखा जा सकता है। हमने भी रात को आपस में चर्चा कर ली थी कि सुबह जल्दी उठ कर दंतेश्वरी दर्शन के लिए चल पड़ेगें। होटल वाले ने भी सुबह 6 बजे चाय देने की हामी भर ली थी। मैने नेट चालू किया, मेरे डाटा कार्ट की स्पीड अच्छी थी। मैने मेल चेक किया और सोने लगा। मित्र नेट पर ही उलझे रहा जब भी मेरी आँख खुलती तो उसे लैपटाप से ही उलझे देखा। मुझे आभास हो गया था कि अब सुबह जल्दी उठकर दंतेवाड़ा जाना संभव नहीं है। सारा कार्यक्रम अभी से विलंब से चलने लगा है। आखिर मैने यही सोचा कि जो होगा सो देखा जाएगा, रात बड़ी प्यारी चीज है मुंह ढांप कर सोईएगा...............   आगे पढें  

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